कोटा, मानसिक तनाव और बच्चों में बढ़ती आत्महत्या की प्रवृत्ति

"मम्मी पापा, मैं जेईई नहीं कर सकती इसलिए मैं आत्महत्या कर रही हूं। मैं हार मानती हूं। मैं अच्छी बेटी नहीं हूं। सॉरी मम्मी पापा, यही लास्ट ऑप्शन है।", ये शब्द हैं निहारिका सोलंकी के सुसाइड नोट के, जिसने कल कोटा के अपने घर में आत्महत्या कर ली। निहारिका केवल 18 वर्ष की थी जिसके आगे उसकी पूरी जिंदगी पड़ी थी लेकिन उसने निश्चय किया कि अब उसे नहीं जीना है क्योंकि वो अपने मां - बाप के जेईई के सपने को पूरा करने में शायद सक्षम नहीं थी। 

एनटीए की गाइडलाइन के अनुसार आईआईटी या एनआईटी में दाखिले के लिए कम से कम 12वीं में 75 फीसदी अंक जरूरी हैं। 12वीं की बोर्ड की परीक्षा में निहारिका के 70 फीसदी अंक थे। इसी कारण वो 12वीं की परीक्षा के लिए दोबारा तैयारी कर रही थी। साथ में जेईई की तैयारी भी चल रही थी। इतना दबाव उसके लिए झेल पाना शायद कठिन हो गया था इसलिए उसने वही किया जो कोटा में अब एक आम सी बात हो गई है - आत्महत्या। 

कोटा में पिछले साल 30 से भी अधिक बच्चों ने आत्महत्याएं की थी। पिछले साल इस मुद्दे पर बहुत बहस भी हुई थी। जून में 11 सदस्यीय स्पेशल सेल का भी गठन किया गया था। इतना कुछ करने के बाद भी ये सिलसिला इस साल भी जारी है। इस साल को शुरू हुए अभी सिर्फ एक महीना ही हुआ है और कोटा में 2 बच्चों ने आत्महत्याएं कर ली हैं। 

ये बात सच है कि कोटा में ऐसे मामले अधिक होते हैं लेकिन कोटा केवल एक उदाहरण है। देश भर में कई विद्यार्थी अपने कॉलेज या तैयारी के दौरान मानसिक तनाव महसूस करते हैं और उनके पास अपने मन की बात साझा करने के लिए कोई नहीं होता। ऐसा इसलिए क्योंकि अधिकतर विद्यार्थी बेहतर शिक्षण संस्थानों में पढ़ने की चाह में अपने शहर/राज्य से दूर चले जाते हैं जिससे उनके बचपन के दोस्तों से संपर्क सीमित होने लगता है। अधिकतर घरों में बच्चे ऐसे माहौल में बड़े नहीं होते कि वो दिल खोलकर अपने माता - पिता से अपने मानसिक दबाव के बारे में बात कर सकें। कई बार तो मानसिक दबाव का कारण उनके माता - पिता और उनकी अपने बच्चों से अव्यावहारिक उम्मीदें ही होती हैं। कई बार माता - पिता, रिश्तेदार और समाज बच्चों से और बच्चे खुद से इतनी उम्मीदें लगा लेते हैं कि असफलता को वे स्वीकर ही नहीं कर पाते और परीक्षा की असफलता, जिसे स्वीकार करके आगे बढ़ जाना चाहिए था, से  निराश हो जाते हैं और निहारिका की तरह आत्महत्या को लास्ट ऑप्शन के रूप में देखते हैं।

न केवल बच्चों में बल्कि हर उम्र के लोगों में बढ़ता मानसिक दबाव और उससे उपज रही आत्महत्या की प्रवृत्ति चिंताजनक है। हम इसके बारे में बात ही नहीं करना चाहते, यहां तक कि कई लोग इसे ढोंग समझते हैं जो और भी अधिक चिंताजनक है। जरूरत है कि हम इसके बारे में बात करना शुरू करें। यदि कोई अपनी परेशानियां हमे बताए तो उसे धैर्य से सुनें न कि उसकी स्थिति का मजाक उड़ाएं जिससे उसकी दशा और बिगड़ जाए। 

अगर निहारिका अपनी सांसें रोकने का फैसला न करती तो शायद अपनी जिंदगी में कुछ न कुछ तो अच्छा ही करती क्योंकि कोई भी परीक्षा और सफलता जीवन की बेहतरी का मापदंड नहीं है। किसी परीक्षा को ये अधिकार कतई नहीं है कि वो किसी बच्चे की सफलता का पैमाना निर्धारित करे। किसी परीक्षा में असफलता से नई संभावनाओं के द्वार बंद नहीं होते, ये बात बच्चों से अधिक उनके मां - बाप को समझनी होगी।

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